
कभी सोचिए, अगर समाज में सब लोग मिल-जुलकर रहने लगें, जात-पात भूल जाएं, एक-दूसरे की शादी में जाकर दही-बड़ा खाएं — तो बेचारे जातिवादी नेताओं का क्या होगा? जो “आपसी खाई” को पुल नहीं, मुद्दा मानते हैं। दरअसल, उनके लिए सौहार्द वही चीज़ है जो क्रिकेट में बारिश — खेल बिगाड़ देती है!
सरकारी नौकरी की खनक: 12वीं पास भूलें नहीं, SSC CHSL है सबसे खास!
नफ़रत की दुकान: खुलती सुबह, जलती रात
राजनीति में अब किसी नेता का ‘विजन’ नहीं, सिर्फ ‘डिवीजन’ मायने रखता है। इनकी सुबह ‘जाति विशेष सम्मेलन’ से होती है और रात ‘धर्म संकट रैली’ में कटती है।
ये वही लोग हैं जो मोहब्बत की बात होने पर ‘तुष्टीकरण’ चिल्लाते हैं, और दंगे की अफवाह फैलते ही “जन भावनाओं का सम्मान” करने लगते हैं।
वोटबैंक का नया फार्मूला: जाति जोड़ो, मुद्दे तोड़ो
गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य? छोड़िए जनाब! ये सब सेक्युलर किस्म के मुद्दे हो गए हैं। असली बात ये है कि आपकी जाति से मुख्यमंत्री कब बनेगा और मंत्री आपका ‘गौत्र’ वाला कब होगा!
तभी तो कहा जा सकता है — “अगर कोई मुद्दा न मिले, तो नया वर्ग बना लो, और उसकी पीड़ा का बीज बोकर वोट काट लो।”
जातिवादी राजनीति का सीजनल सेल
हर चुनाव से पहले जातियों की पहचान ऐसे दोहराई जाती है जैसे ऑफर सीजन में पुराने कपड़े निकाले जाते हैं।
“आपकी जाति X है, हमारा नेता भी X है — इसलिए हमें वोट दीजिए।”
बिलकुल वैसे ही जैसे कोई बोले — “आपके बाल सफेद हैं, हमारे शैम्पू की बोतल भी सफेद है — तो खरीदना तो बनता है ना भाई!”
क्या समाज अब भी ‘बंटवारे’ में निवेश करेगा?
कभी सोचना चाहिए कि अगर जातिवादी नेताओं को सौहार्द से नुकसान होता है, तो इसका मतलब है कि सौहार्द से समाज को फ़ायदा हो सकता है।
पर दिक्कत ये है कि समाज अपने भले की बजाय, अपने ‘गुट’ के भले में ज्यादा विश्वास करता है।
सियासत की नफ़रत और समाज की चुप्पी
जातिवादी राजनीति का खेल तब तक चलेगा जब तक समाज ताली बजाता रहेगा। जो लोग “हमें तो फर्क नहीं पड़ता” बोलते हैं, वो दरअसल इसी व्यवस्था के सबसे उपयोगी ग्राहक होते हैं। अब फैसला समाज के हाथ में है —सत्ता का ब्रांड: ‘नफ़रत’ रहेगा या नया लॉन्च होगा ‘सामाजिक सौहार्द’…
व्यास गद्दी पर हमला: आज के हिंदू समाज को आत्ममंथन की ज़रूरत है?